संकट में हैं प्रजापति समुदाय..
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बर्तन बनाने के लिए मिटटी रौंदता कुम्हार |
माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रौंदे मोय..?
एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूंगी तोय..!
कबीर दास जी का सदियों पहले कहा गया ये दोहा आज शब्दशः सही साबित हो रहा है, क्योंकि बहुत हो चुका कुम्हार का माटी को रौंदना अब माटी की आसमान छूती कीमतें किसान को रौंदने पर तुली है|
प्लास्टिक बर्तनों के दिन-प्रतिदिन बढ़ते प्रयोग व आधुनिक जीवनशैलीने मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के पुस्तैनी धंधे को चौपट कर दिया है| इस धंधे से कोई अच्छी आमदनी न होने के कारण अधिकतर कुम्हार सदियों से चले आ रहे अपने पुश्तैनी काम को छोड़ते जा रहे हैं । युवा वर्ग तो अब बर्तन बनाने की इस कला को सीखने में कोई रुचि नहीं ले रहा है। जो कुछ बचे हुए कुम्हार बर्तन बना भी रहे है, तो उन्हें बर्तनों के लिए मिट्टी और बालू की कीमत ज्यादा चुकानी पड़ रही है| शहरों में बर्तनों को पकाने के लिए पुआल एवं कंडी आदि आसानी से न मिलने के कारण इनकी समस्या और बढ़ गई है। इस कारण कुम्हारी कला के लुप्त होने की आशंका बढ़ती जा रही है।
कल्याणी देवी मन्दिर के पीछे बस्ती में कुम्हार जाति के अधिकतर लोग पुस्तैनी तौर पर कई पीढि़यों से मिट्टी के बर्तन बनाने का धंधा करते आ रहे है। तो वहीँ बलुआ घाट में भी कुम्हार जाति के कई घर है। जिनमें से अब कुछ परिवार ही अब मिट्टी के बर्तन आदि बनाने के काम में लगे है। इनके पूर्वज मिट्टी बर्तन बना कर ही अपना जीविकोपार्जन किया करते थे, लेकिन अब इस काम में मुनाफा कम हो जाने के कारण इन परिवारों के कई युवक काम धंधे की तलाश में दिल्ली, मुम्बई, पंजाब व चेन्नई आदि स्थानों पर जा कर मजदूरी करना इस धंधे से बेहतर मान रहे है। इनसे बात की तो पता चला कि पहले शादी आदि समारोहों में मिट्टी के बर्तन जैसे बट्टा, कलश, दिया, कोशा, गगरी आदि बनाने के लिये इतना आर्डर मिल जाता था, कि वह अपने परिवार के लिए दो रोटी की व्यवस्था आसानी से कर लेते थे। लेकिन अब प्लास्टिक आदि के बर्तनों के आ जाने से इनका धंधा चौपट हो गया है। अब चूंकि मत्ती के बर्तन बनाना इनका पुश्तैनी धंधा है, इस मजबूरीवश ये लोग इसे छोड़ना भी नहीं चाहते।
प्लास्टिक के बर्तनों ने इनका कारोबार छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| अब मिठाई की दुकानों में रबड़ी, लस्सी, दूध आदि के लिए कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक के गिलास प्रयोग हो रहे है। जिससे मिटटी के कुल्हड़, गिलास आदि की मांग में बहुत गिरावट आयी है| घरों और अन्य प्रतिष्ठानों में पानी ठंडा करने के लिए फ्रिज के उपयोग से मटके और सुराही खरीदने वाले भी अब गिने-चुने लोग ही बचे हैं| ये लोग सरकार से मदद की उम्मीद तो संजोयें हैं, लेकिन क्या सरकार इनकी समस्याओं का समाधान निकलेगी? भले ही सरकार ने शिल्प एवं गृह उद्द्योगों को बढाने के लिए तमाम योजनायें चलाई हों, लेकिन इस वर्ग तक कोई भी सरकारी योजना नहीं पहुँची है| कुम्हारी कला पर संकट के कारण जहां इन कुम्हारों के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है तो वहीं मिट्टी के बर्तनों के स्थान पर प्लास्टिक के बर्तनों के प्रयोग से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है।
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