रवीश कुमार का बैंकर्स प्रेम..

मतलब हद दर्जे का लगाव है रवीश जी आपका बैंकर्स से.
अगर आपको ये बैंकर्स किसी हिंदी सिनेमा के सीन की तरह खलनायक की खदान में गुलाम की तरह कोयला ढोते नजर आ रहें हैं तो फिर छुड़वा क्यों नहीं देते इनसे इनकी नौकरी.?  वैसे भी देश में हम जैसे तमाम बेरोजगार युवा गुलामी करने को तैयार बैठे हैं। पीएनबी बैंक की मुम्बई साखा के कुछ अधिकारियों की काली करतूत के कारण नीरव मोदी और उसके सहयोगियों को फर्जी लोन देने में, बैंक को लगभग तेरह हजार करोड़ का भारी भरकम चूना लगा है, तभी से आपने बैंकर्स को टारगेट में ले लिया है और उनके पक्ष में आपका रूदन अनवरत जारी है, और बैक टू बैक खुद को 'जीरो टीआरपी एंकर' बता बता कर बैंकर्स सीरीज करे जा रहें हैं। आपने इन बैंकर्स को विक्टिम बता चंद लाख बैंकर्स के प्रेमी जरूर बन गए हैं। हां प्रेमी ही कहूंगा आपको, क्योंकि वो आपको और सिर्फ आपको चोरी छिपे पत्र, मेल, और व्हाट्सएप्प मैसेज लिखकर अपना दर्द बयां करते हैं, और आप एक प्रेमी धर्म निभाकर अपने शो 'प्राइम टाइम' में उनका नाम नहीं लेते, बस अपने दर्शकों के सामने उन्हें विक्टिम बताकर उनका दुःख दर्द स्वयं बयां कर देते हैं।
   रवीश जी, माना क़ि बैंकिग सिस्टम ही नहीं बल्कि सभी सरकारी, गैर सरकारी संस्थानों के उच्च अधिकारियों एवं प्रबंधकों को कर्मचारियों के प्रति लिबरल होना चाहिए और उन्हें सेवा के दौरान दी जाने वाली सभी प्रकार की सुविधाएं जैसे कार्य के अनुकूल वातावरण एवं स्वस्थ माहौल, शौचालय, कैंटीन, परिवहन एवं अन्य सेवाएं जैसे बीमा, आकस्मिक एवं मातृत्व अवकाश दिए जाने चाहिए, लेकिन क्या ये बैंकर्स आपकी नजर में पूर्णतया निर्दोष हैं, जो इन्हें आप विक्टिम पोट्रेट कर रहें हैं.?
    हुजूर! नोटबंदी के नाम पर हो या कर्ज देने के नाम पर, इन्होंने अपने बैंकिग संस्थानों में अपने उच्च अधिकारियों एवं चेयरमैन के साथ मिलकर ग्राहकों से खूब उगाही एवं ठगी की है। जब इन लोगों ने इस बंदरबांट में अपना हिस्सा लिया है और भरपूर मजे लूटे हैं तो एकाध को छोड़कर सब विक्टिम कैसे हुए, भला.?
  एक बात और, क्या आप कभी इनसे लोन मांगने या किसी आम आदमी की तरह सेवा लेने गए हैं, अगर नहीं गए हैं तो जाइए और मिलिए इनसे। ये किसी आम आदमी को ऐसे ही लोन नहीं देते, उसके लिए बाकायदा सुविधा शुल्क लगता है। यदि आप बिना इनका कमीशन दिए लोन लेना चाहते हैं तो एक-दो जोड़ी जूते तो पक्का घिस जाएंगे, इनकी फॉर्मेलिटी और शर्ते पूरी करते-करते. हाँ वो अलग बात है इन्होंने मुद्रा लोन योजना, अटल पेंशन योजना एवं ऐसी ही तमाम योजनाओं में सरकार को आंकड़ों की बाजीगरी दिखाई और खूब मलाई खाई। हम में से लाखों ग्राहकों के नाम पर लोन सैंक्शन किया फिर उसमें से कुछ चुकाया तो कुछ की सब्सिडी और ब्याज डकार गए। सरकार इन योजनाओं के बड़े-बड़े आंकड़ें चुनावी प्रचार में जनता को बता बताकर वोट बटोरती रही और अपनी पीठ थपथपा कर भक्तों से वाहवाही लूटती रही, और ये बैंकर्स लोग अपना कट (हिस्सा) लेकर विदेश यात्रा और महंगे शौक पूरे करते रहे।
    जी हां नोटबन्दी के बाद से बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े अधिकारियों की विदेश यात्राओं की संख्या में एक अप्रत्याशित उछाल देखा गया, ये देशहित में लिया गया महज एक फैसला नहीं बल्कि एक बड़ा घोटाला भी था। नोटबंदी ने बैंकों को मजबूत किया और बैंकों ने बैंकर्स को। इस दौरान बहुत सी खबरें मीडिया में छाई रहीं जिसमें बैंकर्स की कालाबाजारी पकड़ी गयी, लेकिन ये वही अनाड़ी लोग थे जिनकी या तो किस्मत खराब थी, या इनकी किस्मत में विदेश यात्रा या अप्रत्याशित धन लाभ का संयोग नहीं था। यदि नोटबन्दी के बाद से बैंकर्स की चल-अचल सम्पत्तियों की निष्पक्ष जांच करवाई जाए तो एक और बड़े घोटाले का पर्दाफाश हो जाएगा। लेकिन छोड़िए अब तक क्या कम घोटाले हुए हैं और किस घोटाले के बड़ी मछ्ली अर्थात दोषियों को सजा या फिर इनसे घोटाले की रकम की रिकवरी हुई है भला, जो इस घोटाले की जांच से हो जायेगी. बस बेवजह सीबीआई के मत्थे एक और सरदर्द चढ़ जाएगा।
    रवीश जी,माना कि देश में बैंकर्स ही क्या लगभग हर सरकारी कर्मचारी सरकार से या तो अपने सीनियर्स से या फिर अपने बॉस से शोषित और पीड़ित है। हाँ, कभी-कभी यह शोषण मानवता की सीमा लांघ जाता है और टॉर्चर में बदल जाता है, जो कि गलत है, और इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी बिल्कुल जायज है। इस तरह तो देश का हर सरकारी कर्मचारी, एक आईएएस से लेकर चतुर्थ श्रेणी तक सभी कर्मचारी शोषित हुए न.?
फिर उनके लिए आपकी सहानुभूति के मानदंड क्यों अलग हैं.?
   एक आईएएस अधिकारी जो कि शायद प्रशासनिक सेवा के सबसे उच्च पद पर काबिज होता है, जिसके पास पूरे जिले की कमान होती है। एक सचिव जिसके पास शायद देश या पूरे प्रदेश की बागडोर होती है, फिर भी वो एक अनपढ़ और अंगूठाटेक टुच्चे नेता के आगे बेबस और लाचार है, या उस नेता के हाथ की कठपुतली बनकर उसके हर आदेश की जी-हुजूरी करता है, आखिर क्यों.? क्योंकि हमारे देश का संविधान और कर्मचारी सेवा नियमावली उन्हें ऐसा करने को मजबूर करती है, कि अपने पद के दायरे में रहकर ही काम अथवा सेवा करनी है। चाहे वो काम किसी खदान में कोयला ढोने वाले किसी गुलाम की तरह हो या फिर बोझा ढोने वाले कुली की तरह.
   अगर स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के बल पर स्वछंदता से जीना है तो इस देश का संविधान, इस देश का कानून बदल देना चाहिए, क्योंकि इसी संविधान, इन्हीं क़ानूनों के दम पर ये दो टके के चवन्नी छाप नेता जो कि पैसे और सिस्टम में अपनी पहुँच केे बलबूते मंत्री-संत्री बनकर इन सरकारी कर्मचारियों से गुलामी करवा रहें हैं। जबकि इन कर्मचारियों ने अपने जीवन के कई वर्ष संघर्ष, कष्ट और अभावों में गुजारकर इन बड़े या छोटे प्रशासनिक अथवा अप्रशासनिक पदों को हासिल किया है, किसी नेता की बेगारी या जी-हुजूरी करने के लिए नहीं.
  अतः रवीश जी आप अपना प्रेमी धर्म निभाते रहिए और खुद को 'जीरो टीआरपी' एंकर बता-बता कर 'प्राइम टाइम' की टीआरपी' बढ़ाते रहिए. वैसे भी हिंदी न्यूज़ चैनल्स में इस समय प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा टीआरपी 'प्राइम टाइम' की और सबसे ज्यादा पेड सैलरी पाने वाले आप ही हैं, साहब.! पिछले कुछ समय से लगभग बारह-तेरह लाख आपके नए प्रेमी भक्त तो रोज देखते ही हैं आपको, अब किसी शो को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए इतने दर्शक पर्याप्त हैं।
    रवीश जी ये आपकी पत्रकारिता का स्वर्णकाल ही है, क्योंकि आप अपना एजेंडा सेट करने में कामयाब हुए और समाज के बड़े वर्ग और उसकी सोंच को अपने तर्को के जरिए अपने अनुरूप ढ़ालने में सफल रहे। अब इससे बड़ी नैतिक जीत किसी भी पत्रकार के लिए क्या हो सकती है भला. शायद इस वर्ष फिर से आपको इस भागीरथ खोज के कारण पत्रकारिता का 'रामनाथ गोयनका' या अन्य कोई बड़ा पुरूस्कार मिल जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि आप इस दशक में भारत में 'हिंदी पत्रकारिता के महानायक' जो बने हुए हैं।

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