इंसां के अंदर का मरता इंसां...

     आज जिंदगी मौत से जूझते इलाहाबाद विश्विद्यालय के लॉ छात्र दिलीप सरोज ने दम तोड़ दिया और छोड़ गया अपने पीछे कई सवाल..
हर इंसान कहीं न कहीं अपने अंदर एक जानवर को पाले हुए है, बस अंतर इतना है किसी के अंदर का जानवर कम तबाही मचाता है और  किसी के अंदर का ज्यादा..
   शहर के कटरा इलाके में स्थित कालिका होटल में शुक्रवार की रात जरा से विवाद के बाद हुई लॉ स्टूडेंट की हत्या के जितने कसूरवार वो हत्यारें हैं उतने ही जिम्मेदार इस घटना को राजनीतिक और जातिगत रूप देने वाले लोग भी हैं, क्योकिं हत्या एक व्यक्ति को ध्यान में रखकर की गयी थी, उसकी जाति या मजहब को ध्यान में रखकर नहीं।
  सत्ता और शक्ति के मद (नशे) में चूर व्यक्तियों के लिए इंसान की जान गाजर, मूली से ज्यादा कुछ नहीं होती, शायद तभी तो छोटी-छोटी सी बात के लिए हत्या करने में न तो ऐसे लोगों को सकुचाहट होती है और न ही समाज या पुलिस-प्रशासन कोई डर.
ऐसे बेखौफ दंरिदे समाज के प्रत्येक वर्ग, धर्म, जाति और संप्रदाय में पाए जाते हैं। बस अंतर इतना है कि किसी मामले जोर-शोर से उछाल कर बड़ा मुद्दा बना दिया जाता है तो किसी मुद्दे को दबा दिया जाता है। प्रत्येक सूरत में मौत तो इंसानियत की ही होती है।
कभी ट्रेन में सीट क़ब्जाने के नाम पर तो कभी हॉस्टल, कॉलेज या मोहल्ले में धौंस जमाने के नाम पर तो कभी रिक्शे वाले या टैक्सी चालक के ऊपर तो कभी नौकर या वेटरों पर।आज के इस आधुनिक युग में हम भले ही सभ्य होने का ढोंग रच लें, लेकिन हम आज भी उसी बर्बर युग में ही जी रहें हैं जिसमें हम सभी के अंदर का शैतान जरा जरा सी बात पर जाग उठता है। कभी ट्रेन
  ऐसी तमाम घटनाएं क्राइम रिकार्ड में दर्ज हैं जिनमें मामूली सी बात में किसी न किसी को बेरहमी से मार दिया गया। इसी कड़ी में झूठे आत्मसम्मान के नाम पर व्यक्ति को मौत के घाट उतार दिया जाना कौन सा समझदारी वाला काम है, भला..?
    अभी पिछले दिनों अंकित सक्सेना की सरेआम हत्या इस बात की गवाह है कि लोगों में संवाद और सहनशीलता खत्म होती जा रही है, तभी तो जिन मुद्दों का हल आपसी बातचीत और समझौते से निकल सकता था, उसमें किसी की जिंदगी छीन लेना कहाँ की समझदारी है .?
बड़ा चिंताजनक बात है कि आज इंसान (हालांकि ऐसे लोगों को इंसान नहीं कहा जा सकता) दरिंदगी में जानवरों को भी पीछे छोड़ चुका हैं क्योंकि बालात्कार और उसके बाद हत्या कर शव को क्षत-विक्षत कर फेंक देने जैसा हीनतम अपराध तो जानवर भी नहीं करते।
'कहाँ से कहाँ पहुँच गये हम, लेकिन हर कदम पर अपनी इंसानियत को मारते गये हम..'

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