4×8 की बरसाती वाला शहर..

हर शहर के किसी कोने पर बसता है 4×8 की बरसाती वाला शहर. जिसे हम #झुग्गी #मलिन_बस्ती या फिर #स्लम के नाम  से जानते हैं. यह शहर हमारी नजरों से दूर, शहर की ऊँची-ऊँची इमारतों के पीछे दुबका-सहमा कहीं छुपा हुआ होता है. आम तौर पर हमारी नजरें यहाँ तक नहीं पहुँचती, और अगर गलती से कभी इस शहर के पास से गुजरना हो जाए तो स्वाभाविक ही हमारे मुंह से छि...ई..ई... की ध्वनि निकल पडती है और हमारा मन घृणा से भर उठता है. हमारे हाथ स्वतः ही रूमाल की और बढ़ जाते हैं और अनायास ही हम इस शहर से अपनी नजरें फेर लेते हैं।

यह सब एक आम मानव का स्वभाव ही है जो हमें ऐसा करने पर मजबूर करता है, क्योंकि हम सिर्फ अच्छा देखना, सुनना और चखना पसंद करते हैं. हम ऐसे परिवेश में पलें-बढे हैं जहाँ गन्दगी को देखकर हमें मुंह पर रूमाल रख, मुंह फेर लेना ही सिखाया गया है न कि जिन्दगीं के इस स्याह पक्ष को देखना, समझना, रूबरू होना और इससे झूझना।

लेकिन बदहाली की जिन्दगी कैसी होती हैं, यहाँ आकर पता चलता है. पेप्सी-कोला की बोतलों से प्यास बुझाने वाले हम लोग, बूँद-बूँद पानी को संघर्ष करते लोगों के लिए पानी की कीमत को क्या जानेगें? घर में ब्रेड के साथ जैम-बटर खाने वालें हम लोग, रोटी के एक टुकड़े को कमाने की जद्दोजहद को क्या समझेंगे? एसी-कूलर लगी आलीशान इमारतों के बेडरूमों में आरामदायक बिस्तरों में सोने वाले लोग हम लोग, सीलनभरी बदबूदार हवा घुले माहौल में जमीन में सोने वालों के दर्द को समझेंगे भला.?

गरीबी और बदहाली को अपनी किस्मत मान चुके ये लोग अब आशा ही छोड़ चुके हैं, तभी तो न इनको सरकार से उम्मीद है और न ही ईश्वर का आसरा. समझ नहीं आता आखिरकार क्यों बदनामी के डर से इस शहर को कभी कॉमनवेल्थ की बडी-बड़ी होर्डिंग्स के पीछे छुपा दिया जाता है तो कभी बड़े-बड़े विज्ञापनों की ओट में. लेकिन कभी इस शहर में बसने वालों को इस नरकीय जीवन से निजात दिलाने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया. आजादी के सत्तर साल के बाद भी  इस शहर के लोगों की जिन्दगी में रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी चीजे नहीं आ पाई है. तमाम खद्दरधारी नेता और सूट-बूट वाले नौकर शाह आये और गए, लेकिन इनकी जिन्दगी जस की तस बनी हुई है। 

न तो कोई उज्ज्वला योजना इनकी रसोई तक पहुँच सकी, न तो कोई अंत्योदय योजना इनके पेट को भर सकी. इनकी जिंदगी को सरकार की कोई भी योजना रौशन न कर सकी. इनकी जिंदगी झुग्गियों में जलते दिए की तरह ही फड़फड़ाती है और इसी में दम तोड़ देती है।
हर चुनाव से पहले तमाम नेता आये और इन बस्तियों का दौरा करके चले जाते हैं, चुनाव में बड़े जोर-शोर से इनको अच्छी जिन्दगी देने के नाम पर वोट बटोरते हैं और चुनाव के बाद इन्हें दूध में मक्खी जैसे निकाल कर फेंक दिया जाता है. पता नहीं इनके नाम वोटर लिस्ट में दर्ज भी हैं या नहीं। देश में हर साल लाखों करोड़ों रूपयों की सरकारी योजनाये तो आती हैं, लेकिन न तो इनको रोजगार दे पाती हैं और न ही कोई बुनियादी सुविधाएं।

हमारा देश भले ही विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था या महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हों, भले ही हम अन्तरिक्ष या चाँद पर पहुँच गए हो या दुनिया के सर्वोच्च शिखरों में विजय पताका फहरा चुके हों या फिर दुनिया में अपनी प्रतिभा का डंका बजा दिया हो, लेकिन जब-जब हमारी नजरें शहर के किसी कोने में बसने वाले इस 4×8 के इस शहर की ओर जायेंगी हमारा सिर हमेशा शर्म से झुक जाएगा, क्योंकि विकास की दौड़ में हमने पश्चिमी देशों के विकास मॉडल का अँधानुकरण तो कर लिया, लेकिन अपने देश की बहुसंख्यक आबादी की मूलभूत जरूरतों को समझने और उनको पूरा करने में नाकाम साबित हुए हैं।

कभी जीवन में गरीब और गरीबी को समझने के दिल करे तो जरूर चले जाइएगा अपने-अपने शहरों के किसी कोने में बसने वाले इस 4×8 की बरसाती वाले शहर में. देश के कर्णधारों एवं विकास पुरुषों  से विनम्र निवेदन, 'न राजस्थान में न गुजरात में, कुछ दिन तो बिताइए ऐसे हालात में...'

Comments

Popular posts from this blog

'मेरी अवंतिका' का साइड इफ़ेक्ट..

रेलवे की नसों में दौड़ेगा १२ हजार हॉर्सपॉवर का दम..

आसमां से एक उल्का टूटी, यहां एक सितारा बुझ गया